Friday 9 September 2016

इक नदी थी दोनों किनारे थाम के बहती थी इक नदी थी कोई किनारा छोड़ न सकती थी इक नदी थी तोड़ती तो सैलाब आ जाता करवट ले तो सारी ज़मी बह जाती एक नदी थी आज़ाद थी जब झरने की तरह चट्टानों पे बहती थी इक नदी थी दिल एक ज़ालिम हाक़ीम था वो उसकी जंजीरो में रहती थी इक नदी थी इक नदी थी दोनों किनारे थाम के बहती थी इक नदी थी कोई किनारा छोड़ न सकती थी इक नदी थी... #गुलज़ार साहब


No comments:

Post a Comment